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रघुवीर सहाय का काव्य शिल्प

रघुवीर सहाय का काव्य शिल्प



परिचय:- 

            रघुवीर सहाय नई कविता के महत्वपूर्ण  कवियों  में से एक है । इनकी कविताएं एक्स-रे की तरह आने वाले समय का पूर्वाभास देने में सक्षम है । आज हम इनकी का काव्य भाषा के को जानेंगे ।  अज्ञेय कविता को भाषा का एक प्रयोग , एक अन्वेषण मानते हैं । काव्यवस्तु के बजाय बजाय शिल्प  या भाषा को ज्यादा महत्व देते हैं  ।  इस अर्थ में भी  रुपवादी  थे । मगर रघुवीर सहाय  अज्ञेय की भाषा मान्यताओं से सहमत नहीं थे । इसके विषय में उन्होंने लिखा -  शिल्प और अन्य प्रसंगिक   उपकरण अपने में विश्लेषण के विषय हो सकते हैं , ब्यौरे बार अध्ययन करने वालों के लिए ,  पर वहां से परीक्षण आरंभ नहीं होना चाहिए  । रघुवीर सहाय की काव्य तत्व का  अन्वेषण करने पर ज्यादा जोर देते थे  ; जो कला की परंपरा को आगे बढ़ाता है काव्य कला की भी अपनी एक सापेक्ष स्वायत्तता परंपरा है जो कवियों के द्वारा अन्वेषण  और प्रयोग से नई भाषा और नये  शिल्प  से आगे बढ़ती है  । हर कवि यह कोशिश करता है कि उसका अपना अंदाज -ए -बयां  हो ।

रघुवीर सहाय की काव्य भाषा का विकास

      रघुवीर सहाय की प्रारंभिक दौर की कविता में भाषा के साथ खिलवाड़ या खिलदड़ापन  भी मिलता है । जो संवेदना के विकास के साथ बाद में काव्यगत विडंबना के लिए भी काम आता है।

काव्य भाषा कि में नाटकीयता 

              काव्यभाषा  के विकास में एक  मंजिल ऐसी भी आई जिसमें कवि के बहुत सारे नाटक के पात्रों की रचना की । वे  मजाकिया लहजे में कुछ पात्रों का सृजन रघुवीर सहाय ने किया जैसे हरचरना , चंद्रकांत , दयाशंकर , रामदास आदि  । ये   पात्र  किसी नाटकीय  मुद्रा के विज्ञापन के लिए नहीं जीते जागते यथार्थ को प्रभावी और विश्वसनीय तरीके से पेश करने के लिए उनकी कविता में आए  । रघुवीर सहाय "हाहातूती  नगरी" .... जैसे भाषित प्रयोग से पूरी पूंजीवादी सभ्यता की मारधाड़वाली  स्पर्धावाली  चीख-पुकार व्यक्त कर देते हैं ।  जिसमें सेठ,  नेता ,  कमिश्नर भी है और शोषित भी हैं ,  सर्वत्र सर्वदा है। काव्य भाषा का ऐसा सावधान प्रयोग रघुवीर सहाय की कविता में प्रारंभिक दौर से  ही मिलता है । वे भाषा की सीमाएं भी जानते थे । शब्द यथार्थ की इस इमेज को होता है लेकिन फिर भी उस में असलियत को पूरी तरह चित्रित करने की क्षमता नहीं होती .......।  अपनी नई कविताओं में उन्होंने भाषा इस कमजोरी की तरफ इशारा किया है।  अरुण कमल ने कहा -   नागार्जुन के बाद रघुवीर सहाय की  भाषा में हमें  भाषा के अनेक मुद्राएं मिलती हैं ।  बोलचाल की नाटकीयता , वक्रता ,लोच कविता की भाषा की बोली के इतना करीब लाने में रघुवीर सहाय का  कोई सानी नहीं। 
           डाँ विश्वनाथ त्रिपाठी ने रघुवीर सहाय की चिंता भाषा को लेकर बहुत दिखलाई है पड़ती है ।
1) उनकी काव्यभाषा किताबीपन या रीतिवादिता  से मुक्त है । 
 2) छदम हिंदी न हो  , वह भाषा के दोमुहेपन से बचने का आग्रह करते हैं । वे इस दोमुहपन से बचना चाहते थे और चाहते थे कि उनके शब्दों का अर्थ पाठक के मन में वही निकले जिसे सोचकर उन्होंने लिखा है । उन्होंने एक नयी और जीवित भाषा की तलाश में भाषण को  रचनात्मक गर्माहट से बचाते हैं  ....और लगभग कविता के लिए अनुपयुक्त हो गए शब्दों के अर्थ सघनता को बहुत हल्के से खोलते हुए एक खास किस्म के गत्यात्मक तेवर को रिटौरिकल मुहावरे में तब्दील कर देते हैं ।              रघुवीर सहाय की काव्य यात्रा में भाषा स्तर पर बोध  या  संज्ञान के विकास के ही  अनुरूप एक  परिवर्तन भी हुआ है । शुरुआती दिनों में जहॉ भाषा के साथ  काफी खिलवाड़ करती हुई रचनाएं होती थी , वही उनके  राजनीतिक और सामाजिक   स्तर की जागरूकता के  विकास के साथ कविताओं में भी वो खिलवाड़    या कौतुक पैदा करने की प्रवृत्ति कम होती चली गई । 

रघुवीर सहाय की कविता में छंद

          रघुवीर सहाय ने अपनी कविता यात्रा उस समय शुरू की थी जब हिंदी कविता छंद मुक्त हो चुकी थी  । फिर भी रघुवीर ने छंद का उपयोग किया । उन्होंने एक महत्वपूर्ण पड़ाव पर पहुंचकर महसूस किया की कविता श्रव्य  भी होनी चाहिए ...जिसके लिए छंद मददगार साबित होता है  । कई बार तो ,  कवि के अनुसार ,  छंद स्वतः  कविता के शिल्प का हिस्सा बनता गया जैसे कि "रामदास " कविता के साथ हुआ । 
                        अपने एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा -  मैं मानता हूं कि अब कविता की आवाज जब तक लोगों के कान में नहीं पड़ेगी तब तक कविता के जो शब्द है उनकी सच्चाई  के बारे में कवि पर कोई दबाव नहीं रह जाएगा ।  कवि सच्चे ही शब्द कहे ,  लिखें ...इसके लिए जरूरी है कि वे शब्द लोगों को सुनाई पड़े। इसमें यह स्पष्ट होता है कि रघुवीर सहाय ने अपनी कविता में  कभी छंद से कोई परहेज नहीं किया। 
 निर्धन जनता का शोषण है
 कहकर आप हंसे
 लोकतंत्र का अंतिम क्षण है
 कहकर आप हंसे

रघुवीर सहाय की काव्य भाषा में लय

        रघुवीर सहाय ने छंदबद्ध कविताओं , छंदमुक्त और गद्दमय  रचनाएं भी रची । यह जरूर हुआ कि वैचारिक परिपक्वता और सामाजिक सरोकारों से लगाव के विकास के साथ उनके कृतित्व के गद्दमय कविताएं ज्यादा आने लगी ।  मगर उनकी कविताओं में लय का एक खास स्थान हमेशा रहा ....रचना चाहे पद्य में रही हो या गद्यमय ।          
                  विनोद दास का मानना है कि --- काव्य वस्तु की शिराओं  में ज्यादा रक्त पहुंचाने के उद्देश्य से अपने काव्य शिल्प को निरंतर  खोजते और बदलते रहे  । उनके काव्य शिल्प की विविधता में भी लोकतांत्रिक मिजा़ज की झलक है जिसमें लय का संमागम भी है। 
           रघुवीर ने कहा कि -- " आधुनिक कविता में संसार के नए संगीत का विशेष स्थान है और  वह आधुनिक संवेदना का आवश्यक अंग है मैंने अपनी कविताओं में संगीत की खोज की है ।  उनकी प्रारंभिक  कविताओं में जहां छंद नहीं भी है , एक लय  जरूर है  । "हंसो हंसो जल्दी हंसो " कविता में रघुवीर सहाय में शासक वर्गों की अमानवीय   और उनसे जुड़े बुद्धिजीवियों पर व्यंग की जो मार की थी ,  उसमें भी मारक लय का संधान किया गया था । 
          इस तरह हम देखते हैं कि रघुवीर सहाय की कविता में लय के अनेक स्तर हैं । इसमें पारंपरिक छंदों वाली लय भी  है और एकदम बोलचाल की भाषा की लय । जहां गैरनाटकीयता के हिस्स हैं वहाँ  एकदम आत्मीय  बातचीत की लय है और अनेक हिस्सों में नाटकीयता और विडंबना के साथ तरह-तरह के तेवर लिये  है ।
        अतः यह कहा जा  सकता है कि रघुवीर सहाय की रघुवीर सहाय की  काव्य भाषा लगभग बोलचाल की भाषा लगती है परंतु वह केवल वही नहीं है...... अपितु अपने सहजपन में जीवन यथार्थ के उलझाव भरे  ऊपरी ताने-बाने को,  आम आदमी के कटु रिक्त  अनुभवों को पूरी शक्ति के साथ अभिव्यक्त करने में समर्थ है । काव्य भाषा के  बहुलार्थक  रूप के बारे में  रघुवीर ने  चिंतन किया और उसे अभिव्यक्ति हेतु सरल बनाया।



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