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अंधा युग की कथावस्तु का आधुनिक संदर्भ में विवेचन

अंधा युग की कथावस्तु का आधुनिक संदर्भ में विवेचन




अंधा युग नाटक में रचनाकार अपनी रचना द्वारा लोगों का ध्यान अतीत में हुई गलतियों की तरफ आकृष्ट करना चाहता है ताकि हम भविष्य हेतु सतर्क रह  सके  । लेखक इसे मिथक के रूप में प्रदर्शित करता है  । 'मिथक' शब्द  'मिथ' का हिंदीकरण है  जो प्रायः दंतकथा , पूराख्यान , धार्मिक कथा के पर्याय के रूप में प्रयोग किया जाता है । कई प्रकार की अनुभूति तथा अलौकिक गाथाओं का अर्थ देने के लिए भी इस शब्द का प्रयोग किया जाता है ।

साहित्य में मिथकों का प्रयोग युग के यथार्थ का बोध कराने सांस्कृतिक परिवर्तन के लिए ,  उदात्त जीवन - मूल्यों की स्थापना के लिए होना चाहिए , केवल पुराण - कथा को दुहराना  न उचित है , न ही प्रसांगिक । अंधायुग युग की समस्याओं पर प्रकाश डालकर उनका समाधान प्रदान करता है इसलिए मिथक पर आधारित साहित्य रचना को विसंस्कृतिकरण के आक्रमण के विरुद्ध अस्त्र कहा गया है।

                  अंधा युग की रचना काल 1954 ई में हुई थी  । द्वितीय विश्वयुद्ध में हुए भीषण नरसंहार  , मूल्यों के अपघटन , रक्तपाद , विध्वंस ने लेखक के  हृदय को आघात पहुंचाया  । आर्थिक , सामाजिक , राजनीतिक स्तर पर लेखक ने इस पीड़ा को महसूस किया  । जिसमें तृतीय विश्वयुद्ध का भय छिपा हुआ था । जिसमें सबसे चिंताजनक मानव - मूल्यों का  हास् था  । मानव का मर्यादाहीन होकर पशुवत व्यवहार करना संसार का अंत करने के लिए काफी हो सकता था ।

विश्व समाजवादी तथा पूंजीवादी अर्थव्यवस्था की दो प्रतिनिधि राष्ट्रों रूस और अमेरिका में बँटा हुआ था किसी भी समय युद्ध छिड़ सकता था । अतः महाभारत और द्वितीय विश्वयुद्ध की स्थिति में एक  समानता थी दोनों ही स्थितियां बहुत भयावह थी  ।

द्वितीय विश्व युद्ध के साथ ही विषम परिस्थितियों का भी जन्म हुआ । विज्ञान तथा भौतिकवादी दृष्टि के कारण सनातन जीवन मूल्यों का टूटना , आर्थिक मंदी, अभाव तथा राजनीतिक उथल-पुथल के कारण कुछ अस्तित्ववाद दर्शन से मनुष्य निराश ,  आस्थाहीन  और किंककर्तव्यमूढ हो गए , ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार महाभारत के बाद की युद्ध की स्थिति थी । जिस प्रकार हर जगह केवल त्राही  - त्राही मची हुई थी ।  जहां तक नजर जाती विनाश ही विनाश दिखाई पड़ता । अंधा युग में लेखक एक और कटु सत्य को रेखांकित करता है जिसमें दर्शन , धर्म ,  कला , संस्कृति तथा शासन - व्यवस्था पूर्णतः आस्थाहीन है  । जिन पर विश्वास रखना कठिन जान पड़ता है।

अस्तित्वादी दर्शन  मानता है कि मनुष्य बेबस , बेसहारा व निराश है । व्यर्थता तथा लाचारी उसके जीवन को कठिन बना देता है । युद्ध का परिणाम सदैव ही हानिकारक व  पीड़ादायी  होता है ।  यही सीख अंधायुग में वर्णित महाभारत का 18वें दिन का वर्णन हमें देता है । इसमें न तो कोई पक्ष जीतता है न कोई हारता है हर जगह संपूर्ण विनाश होता है  । द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद सभी राष्ट्र दुखी थे । जीतने वाला अमेरिका तथा रूस भी .....और हारने वाला जर्मनी भी ।  कुछ ऐसा ही हाल महाभारत के युद्ध में कौरवों और पांडवों का देखने को मिलता है । सब का अंत पीड़ादायक होता है  । अंत में सबको अनन्य पीड़ा के साथ देह त्याग करना पड़ता है । यह एक नया युग बोध है जिसे लेखक ने मिथक के माध्यम से व्यक्त किया है  ।  हमारे सामने जो युद्धों के अवशेष पड़े हैं बराबर याद दिलाते रहेंगे कि हमें कैसे जीना है  ।

लेखक इस बात का ध्यान आकृष्ट करता है कि आखिर युद्ध का परिणाम क्या होता है और कौन विजयश्री प्राप्त करता है ?... जय तो होती है किंतु अविवेक की , अर्धसत्य की , बर्बरता की  ,अध्यक्षता की और.... पराजय होती है विवेक की , शांति की, सत्य की । युद्ध का परिणाम केवल निराशा ही होता है  ।

उससे भी बड़ा सत्य है कि युद्ध कितना भी बड़ा क्यों ना हो वह मनुष्य के अंदर निहित है  । मनुष्य चाहे तो एक छोटे से विचार को बदलकर बड़े से बड़े युद्ध को रोक सकता है ...किंतु वह अपने अंह की पुष्टि के लिए ऐसा नहीं करता । अतः सर्वप्रथम हमें अपने विचारों में परिवर्तन की आवश्यकता है ताकि युद्ध खत्म किए जा सकें  ।

1947 में जब देश आजाद हुआ , तो यह  प्रश्न था कि देश किस ओर आगे बढ़े ? अंधा युग की चिंता भी यही है ... जिसमें वह कौरवों पांडवों को 2 मार्गों के रूप में देखता है । वे दो मार्ग पूंजीवाद व समाजवाद के रूप में सामने आते हैं, लेकिन दोनों की अपनी सीमाएं हैं । दोनों पक्ष अपने ही को सही तथा दूसरे को गलत बताते हैं लेकिन "अंधायुग" के अनुसार दोनों तरफ  अर्धसत्य है  । जीवन - मूल्यों की टकराहट कौन - सा मार्ग अच्छा है यह तय कर पाना मुश्किल है । लेखक की चिंता मानव  - मूल्यों की  पुनः प्रतिष्ठा है और उसके द्वारा सुझाए गए समाधान भी उचित हैं।

लेखक मानता है कि प्रभु की मृत्यु नहीं हुई हैं। केवल रूपांतर हुआ है। वह अन्य रूपों में अपना दायित्व निभाएंगे वे आत्मा के रूपों में अपना दायित्व निभाएंगे भी आत्मा के रूप में प्रत्येक व्यक्ति का नेतृत्व करते हैं । मानव जाति का भविष्य भी उन्हीं लोगों के हाथों में सुरक्षित रहेगा ...जो कृष्ण की तरह औरों के पापों का प्रायश्चित अपने सिर पर लेने की इच्छा रखने वाले होंगे  । "अंधायुग" का लेखक मानता है कि  नियति पूर्व - निर्धारित नहीं होती , मानव के निर्णय  , उसके कर्म उसे हमेशा बनाते वह मिटाते  रहते हैं  । वहीं उनका सृजनकर्ता है और वही अपना भविष्य निर्माता है।

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