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श्रीकांत वर्मा और आक्टेवियो पॉज / ऑक्टेवियो पॉज का साहित्यिक विधा के रूप में साक्षात्कार और विचार





श्रीकांत वर्मा और आक्टेवियो पॉज / ऑक्टेवियो पॉज का साहित्यिक विधा के रूप में साक्षात्कार और विचार



       
         
 आक्टेवियो पॉज विद्वान लैटिन अमेरिका के प्रसिद्ध विद्वान कवि चिंतक हैं  । हिंदी के वरिष्ठ कवि और कथाकार श्रीकांत वर्मा द्वारा इनका साक्षात्कार लिया गया । "साक्षात्कार"  में विशिष्ट व्यक्ति से  किसी विषय पर प्रमाणिक जानकारी ली जाती है तथा बातचीत के द्वारा उसके दृष्टिकोण , मंतव्यों - मान्यताओं को समझने का प्रयास किया जाता है ।
                  आक्टेवियो पॉज की गिनती "लैटिन अमेरिका" दुनिया के 2 बड़े कवियों कवियों में की जाती है । पहले हैं चिली के पाब्लो नेरुदा , जो समाजवादी थे ....और दूसरे हैं ,   मेक्सिको के आक्टेवियो  पॉज जो अतियथार्थवादी और जनवादी थे । श्रीकांत वर्मा ने प्रस्तुत साक्षात्कार के प्रारंभ में दोनों कवियों का तुलनात्मक अध्ययन किया है..... जो सूचनात्मक होने के साथ-साथ रोचक भी है  ।   श्रीकांत वर्मा ने आज से दो बार लंबी बातचीत की पहली बार वे मेक्सिको के राजदूत बनकर भारत आए थे और दूसरी बार  तब जब उन्होंने 1968 में मेक्सिको के द्वारा असंतोष के दमन के  मुद्दे पर अपनी सरकार के विरोध में राजदूत पद से त्यागपत्र दे दिया ।
                           अब हम श्रीकांत वर्मा द्वारा लिए गए साक्षात्कार को देखे तो श्रीकांत वर्मा ने यह  बताया है कि पॉज सिर्फ एक कवि नहीं है  ।
 1) कवि एक महान विचारक भी है । उन्होंने कला पर जो  पुस्तकें लिखी है वह अमूल्य दस्तावेज है ।  दुशा पर उनकी  पुस्तक  एक अनोखी कला - व्याख्या है ।  (दुशा एक फ्रांस में  जन्मे  चित्रकार है )

   2) उनमें सभी प्रकार की व्यवस्थाओं की प्रति  प्रश्नाकुुलता है , विद्रोह और मानवता विद्यमान है और यही उनके चिंतन का आधार है  ।
 3)  पॉज पर भारत की अमिट छाप है जिनका प्रमाण उनकी भारत संबंधी अनेक कविताओं में मिलता है ।
4) भारतीय संगीत , भारतीय मूर्तिकला को वे  विश्व सभ्यता की महान उपलब्धि मानते हैं ।  यह  सभी विशेषताएं  उनके समृद्ध सांस्कृतिक व्यक्तित्व को उभारती हैं  ।


 भारतीय कला और साहित्य पर विचार

           

  राजनीति लेखन का आधार  नही  :-

अतियथार्थवाद से प्रभावित होने के कारण ऑक्टेवियो पॉज प्रचलित सिद्धांतों से विरोध प्रकट करते हैं  । वे स्वप्न  तथा अवचेतन मानस पर विश्वास करने वाले कवि लगते हैं । वे राजनीतिज्ञों और  इतिहासकारों को सतह पर घटित होते सत्य को देखने वाला मानते हैं । भारतीय लेखकों से भी  यह आशा रखते हैं कि वे राजनीति से दिग्भ्रमित नहीं होगें ।

अधूरा ज्ञान :-


  वे कहते हैं कि भारतीय लेखक पश्चिमी साहित्य के संपर्क में पूरी तरह नहीं आए । वे आधे  - अधूरे ज्ञान को पाकर संतुष्ट हो गए । छोटे-छोटे देशों के समाचार पत्र भी देश-विदेश के साहित्य और कला में गहरी दिलचस्पी रखते हैं  । मगर मैंने देखा है कि उन्हें राजनीति के की ओछी से ओछी  बातों में रुचि है ।साहित्य से कोई सरोकार नहीं  । एक लोकप्रिय पत्र लोकरुचि को आधुनिक बनाने में कितना सहायक हो सकता है  , इसका उन्हें अंदाजा ही नहीं । उनके "साप्ताहिक संस्करण"  भी साहित्य और कला का मखौल जान पड़ते हैं । लेकिन पॉज उन कारणों को परिचालित करने वाली शक्तियों पर ध्यान नहीं दे पाते  ।

 अमूर्त कला आंदोलन  :-    

 पॉज  प्रसिद्ध  कला समीक्षक है  । वे कहते हैं कि अमूर्त कला की दुनिया में अत्यधिक नकल है और इसका कारण यही है कि  विद्रोह  आवशक है , क्रांति नही  :-      
 साक्षात्कार के उत्तरांश में बहस छात्र - असंतोष , उनकी सरकार द्वारा उसके दमन तथा इसके विरोध स्वरूप पॉज के त्यागपत्र पर केंद्रित हो जाती है  । इसका विश्लेषण कर मानते हैं कि राजनीतिक कारण क्रांतियां अपना अर्थ खो चुकी हैं क्योंकि उनका लक्ष्य किसी न किसी तरह सत्ता तक पहुंचना है  । इसलिए वह मानते हैं कि समाज को बदलने के लिए विद्रोह आवश्यक है  ; क्रांति नहीं । विद्रोह गहरे अर्थों और समग्र व्यक्तित्व की तलाश करता है ।उसकी खोज का क्षेत्र संवेदना नहीं ,फार्म है । इसका अर्थ यह नहीं है कि चित्रकला की दुनिया में सांस्कृतिक संकट आ गया है । दरअसल वहां गतिरोध (उतना) नहीं, (जितनी) गति है (या) भयानक गति है ।


 पश्चिम का   झूठा गर्व :-

 पश्चिमी सभ्यता के खोखले वायदों का पर्दाफाश करते हुए कहते हैं कि भारत अगर भुखमरी की कगार पर खड़ा है तो पश्चिम प्रमाणु बम के ढेर पर खड़ा है इसलिए पश्चिमी सभ्यता का यह गर्व झूठा है ।

 वर्ग सता की स्थापना :-    

 मार्क्स नेे वर्ग सत्ता की स्थापना पर स्पष्टीकरण दिया लेकिन आगे चलकर वह निर्मम राजसत्ता में परिणित हो गई । आज मनुष्य के "एलीनिएशन" के लिए राज्य सत्ताँए जिम्मेदार है ।भारत इन सब से अछूता शायद इसलिए बना रह सका क्योंकि उसने अपने अस्तित्व के लिए राजनीति के स्तर पर नहीं , बल्कि दर्शन के स्तर पर संघर्ष किया ।

श्रीकांत का प्रश्न :- 

 श्रीकांत के प्रति प्रश्न कि आज के अर्थ और राजनीति के दॉवपेची  युग में लड़खड़ाते भारत से क्या यह आकांक्षा करना उचित है कि वह मार्गदर्शन के स्तर पर ही जीवित रहे  ।
               इस  प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए वह कहते हैं कि भारत में राजनीति तथा आर्थिक विकास से संन्यास नहीं लेना  ...... बल्कि हमें एक ऐसी विश्व सभ्यता की आवश्यकता है जो वैज्ञानिक आकांक्षा और कविता के आंतरिक अनुशासन का समन्वय हो ।जो भारत में नजर आती है।  विश्व को भविष्य के लिए भारत से संभवतः वह दृष्टि मिल सकती है । पॉज बौद्ध धर्म की सबसे अधिक प्रभावित हुए क्योंकि उसमें अधिक से अधिक दर्शन और कम से कम धर्म है ।

भारतीयकला और संगीत :-  

वेे भारतीय कला पद्धतियों से प्रभावित  थे तथा इसे वह भारत के जीवन का अविभाज्य अंग मानते हैं । वह कहते हैं कि भारतीय बुर्जुआ इस लोक संस्कृति को नष्ट कर रहा है  । इस जघन्य कृत्य का दोषी वे उस अंग्रेजी पढ़े लिखे वर्ग को मानते हैं जो एक ओर साहित्य और संस्कृति का स्वांग करता है ........और दूसरी और अपने ही देश के सांस्कृतिक आकांक्षाओं को नष्ट करता है । इसके रुचि घटिया और भद्दी है और यही यहां का शासक बन बैठा है । यह पाखंडी और नक्काल वर्ग है । इसने अंग्रेजी साहित्य का भी अधूरा अध्ययन किया है शेक्सपीयर  उसके लिए ड्राइंग रूम की सजावट की चीज है जब तक यह वर्ग बना रहेगा तब तक भारत का साहित्य और कला विकसित नहीं हो सकते ।

  भारतीय  बुद्हिजिवियो से असंतोष  :- 

 भारत के बुद्धिजीवियों के प्रति पॉज का गहरा असंतोष है जो राजनेताओं के दास बनकर रह जाते हैं । जबकि राजनीति को बदलने के लिए विद्रोह और समाज को बदलने के लिए समाज के आलोचना , गहरी  शंका आवश्यक होती है। उन्हें चित्रकार स्वामीनाथन ,  पत्रकार श्यामलाल , साहित्यकार नीरद चौधरी सरीखें  जैसे  बुद्धिजीवियों और कलाकारों से आशाएं हैं क्योंकि यह प्रतिष्ठित मूल्यों से उदासीन है । इनमें शंका की प्रवृत्ति है और आलोचनात्मक दृष्टि रखते हैं किंतु ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे ऑक्टेवियो पॉज को केवल कुछ ही लोगों की जानकारी है उन्हें संपूर्ण साहित्य की जानकारी नहीं है अन्यथा वे उपयुक्त 3 नाम या इन जैसे लेखकों के नाम लेकर संतुष्ट न हो जाते ।
           
                  सारांश के तौर पर कहा जा सकता है कि केवल कवि कला समीक्षक के रूप में उपस्थित ना हो कर एक ऐसे विचारक के रूप में उभरते हैं जो अपनी समय  , सभ्यता के ज्वलंत प्रश्नों से टकराता है , अपने समय में आ रही खामियों को गहराई से पहचानता है  । उन्हें दूर करने की चिंता  में उभचूभ होता , झुंझलाता उन्हें विश्लेषण कर एक रोशनी खोजने का प्रयास करता है  । उनका स्पष्ट मत है कि राजनीतिक क्रांतियों ,  विचारधाराओं  , सभ्यताओं ने अपना दायित्व पूरा नहीं किया ।  वे समग्र मानव - जीवन पर उसकी प्रतिष्ठा पर ध्यान नहीं दे पाई है । यही कारण है कि वर्तमान समय अराजक , मूल्यहीन   और राज्यसत्ताए निरंकुश होती चली गई है । इस जड़ व्यवस्था को तोड़ने का सिर्फ एक ही उपाय है सचेत संस्कृत कर्मियों द्वारा विरोध और विद्रोह हो इस विरोध और विद्रोह । इस  विरोध - विद्रोह की संभावनाएं पॉज को कवि - कलाकारों - बुद्धिजीवियों में ही नजर आती हैं और वह मानते हैं कि यही वह वर्ग है  जो भारत को एक अच्छे मुकाम पर ले जा सकता है  और विश्व को  दर्शन को एक दृष्टि दे सकता है ।





       

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