बाणभट्ट की आत्मकथा की प्रसंगिकता
किसी रचनात्मक कृति की प्रसंगिकता को समझने के लिए हमें और देखना चाहिए कि वह रचना अपने समय और समाज के साथ कैसा बर्ताव करती है । वही रचना सार्थक और प्रसांगिक कही जा सकती है जो अपने रचना काल में हो रही सामाजिक - राजनीतिक - सांस्कृतिक उथल-पुथल को प्रतिबिंबित करने में समर्थ हो , जिसने जनता की इच्छा - आकांक्षाओं को स्वर देने की शक्ति हुई हो । इसके साथ ही साथ मानवीय मूल्यों के प्रति उसका सरोकार स्पष्ट हो । ' बाणभट्ट की आत्मकथा' इस दृष्टि से एक सार्थक औपन्यासिक रचना है ।
हर्ष कालीन इतिहास से सामग्री लेकर उपन्यास की रचना की गई है । इसमें हर्षवर्धन की राजसभा के विख्यात कवि बाणभट्ट के चरित्र को केंद्र में रखा गया है । इस उपन्यास की प्रसंगिकता हम विभिन्न स्तरों पर देख सकते हैं :-
नारी जाति का सम्मान :-
इस उपन्यास में तत्कालीन सामंती समाज की जड़ता के विरुद्ध नारी जाति के विद्रोह को संवेदनशीलता के साथ उभारा गया है । नारी के प्रति आदर व सम्मान की भावना , उसकी अस्मिता की रक्षा के लिए प्रति प्रतिबद्धता और मानवीय मूल्यों की रक्षा का आवाहन इस उपन्यास के उद्देश्य को महानता प्रदान करता है ।
देवी शक्ति पर मानवीय प्रेम की विजय :-
मानवीय प्रेम की को श्रेष्ठ साबित करने का प्रयास न संदेश कृत को श्रेष्ठ बनाता है । मनुष्य के हृदय भावना और उसकी इच्छा - आकांक्षाओं को इस उपन्यास का केंद्रीय महत्व मिलता है ।
भ्रष्ट सत्ता के खिलाफ बगावत :-
इस उपन्यास में एक तरफ राष्ट्र व आततायी सत्य , मूल्य हीन समाज की चाटुकारिता दिखती है तो दूसरी तरफ भ्रष्ट सत्ता के खिलाफ बगावत । सांप्रदायिकता , राजनीति , राष्ट्रीय सुरक्षा , परंपरागत मूल्यों का अस्वीकार जैसे अनेक सवाल इस उपन्यास को समकालीन संदर्भ से जोड़ते हैं। इसलिए यह एक ऐतिहासिक आख्यान होते हुए भी वर्तमान संदर्भो में अपनी प्रासंगिकता बनाए रखती है ।
रूढ़िवादिता के खिलाफ आवाज :-
लेखक ने उन सारी गलत वर्जनाओं , रूढ़ियों एवं भ्रांत धारणाओं के प्रति जनता को सचेत व सावधान किया है , जिनके नीचे वह हजारों वर्षों से पिसती चली आ रही है । करोड़ देवी - देवताओं से त्रस्त भारतीय जनमानस को ललकारते हुए वह कहता है :- पाषंडी ! तेरे सब शास्त्र मुझे पाखंण्ड सिखाते हैं , जो तेरे अंदर सत्य है उसे दबाने को कहते हैं । इस उपन्यास में डर का तिरस्कार करते हुए मनुष्य के अस्तित्व की प्रतिष्ठा की गई है । यहां इस मानव - विरोधी चिंतन का जबरदस्त खंडन दिखाई देता है कि मनुष्य देह पाप का मूल है । इसके विपरीत इस मानव शरीर को लोक- कल्याण का माध्यम बताते हुए इसकी सार्थकता स्थापित की गई है ।
मनुष्य धर्म का पालन व गृहस्थ जीवन की उपयोगिता :-
मनुष्य धर्म का पालन ही बृहत्तर मानव - समाज के हित में है । शायद इसलिए इस उपन्यास में गृहस्थ जीवन की उपयोगिता पर ज्यादा बल दिया गया है । क्योंकि इसमें मानव कल्याण की असीम संभावनाएं छिपी होती है और सबसे बड़ी बात यह है कि यह जीवन मनुष्य को उसके अस्तित्व और उपयोगिता का बोध कराता है ।चराचर जगत में कोई अंतिम सत्य नहीं है:-
किसी से भी न डरना ,गुरु से भी नहीं , मंत्र से भी नहीं, लोक से भी नहीं ,वेद से भी नहीं । बाबा बाणभट्ट को जीवन का वह मूल मंत्र देते हुए कहना चाहते हैं कि इस चराचर जगत में कोई अंतिम सत्य नहीं है । वेद - शास्त्र समय के की गति से नहीं बदलते इसलिए वे प्रसांगिक हो जाते हैं
अंधआस्था :-
किसी व्यक्ति के प्रति अंध आस्था भी उचित नहीं होती । चाहे वह गुरु ही क्यों ना हो ! जहां तक आस्था और विश्वास की बात है , वह मनुष्यता के प्रति होनी चाहिए ।लोक कल्याण :-
संप्रदायिक मतभेदों और विधि - विधानों ने मनुष्य को उसके लक्ष्य से परे धकेल दिया है । "सत्य होता है " जिससे लोगों का कल्याण होता है , लेकिन मनुष्य स्वार्थ के वशीभूत लोक कल्याण के व्यापक लक्ष्य से भटक जाता है । इस उपन्यास में स्वार्थपरता के विरुद्ध लोक कल्याण की भावना को महत्व दिया गया है ।इस प्रकार हम बाणभट्ट की आत्मकथा की प्रसंगिकता का अनुमान लगा सकते हैं । यह कई ऐसे भेदों को खोलकर रखता है । जिसके आधार पर आज के समाज को भी देखा जा सकता है । हजारी प्रसाद द्विवेदी की इस रचनात्मक लेखक की सार्थकता का भी सबसे बड़ा प्रमाण है । उपयुक्त संदेश , जो लोक , वेद , गुरु , मंत्र की वर्जनाओं से मनुष्य को मुक्त रखने का आवाहन करता है । कोई अंतिम सत्य नहीं है । शोक और वेदना भी एक सीमा के बाद अनुपयोगी और बाधक बन जाते हैं । मनुष्य के जीवन मूल्य और आदर्शों की रक्षा और प्रतिष्ठा को बचाने में ही "बाणभट्ट की आत्मकथा" की सार्थकता और समसामयिक प्रसंगिकता है ।
1 Comments
सकुशल प्रस्तुति🌹🥀
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