घनानंद की कविता आत्मानुभूति की सच्ची तथा तेज अभिव्यक्ति है उसमें मानव मन विशेषता हृदय की अनंत भावनाओं अंतर दशाओं का अनोखा चित्रण है घनानंद के संबंध में रामधारी सिंह दिनकर का यह कथन दृष्ट है दूसरों के लिए किराए पर आंसू बहाने वालों के बीच यह एक ऐसा कभी है जो अपनी ही पीड़ा में पीड़ा से रो रहा है रीतिकाल के अधिकांश कवियों ने प्रथम तो वियोग वर्णन की तुलना में श्रृंगार के संयोग पक्ष के ही चित्र अधिक ओके रहे हैं क्योंकि जिनके लिए वे कविता लिखते थे उनका मनोविनोद उद्यान श्रृंगार के कामोद्दीपक चित्रों से होता था दूसरे जो विरह वर्णन के क्षेत्र हैं उनका उत्साह सांप स्वानुभूति पीड़ा ना होकर काल्पनिक योग है और उस पर फारसी की वर्णन शैली का प्रभाव है इनकी तुलना में घनानंद अपनी पीड़ा को ही सहज ढंग से व्यक्त करते रहे अतः उनके काव्य में भाव की तीव्रता है उसमें कवि की पीड़ा का सच्चा प्रकाशन है उनके सहयोग से गाय के कविताओं में भी जहां नायिका के रूप लावण्य के चित्र है नायिका कोई कल्पना प्रसूत रमणी ना होकर उनकी प्रियसी सुजान है जिसे उन्होंने निकट से देखा था और जिसकी रूप माधुरी का पान करते करते उनकी आंखें ओं अंखियों कभी तृप्त नहीं हुई और यह रूप वर्णन भी अन्य कवियों से भिन्न है कवि ने नायिका के अंग प्रत्यंग ओं का वर्णन करते समय ना तो नक्षत्र वर्णन की रोड पद्धति अपनाई है और ना प्रत्येक अंग की सुषमा का वर्णन करने के लिए परंपरागत उपहारों की लड़ी ही खड़ी की है उनका रूप वर्णन स्थूल नहीं है उसके प्रभाव का वर्णन अधिक करते हैं
लाजमी लपेटी चितवनी भेदभाव भरी
लसती ललित लोल - चख तिरछनी मे
छवि को सदन गोरों बदन, रुचिल भाल
रस निचुरत मृदु मीठी मुस्क्यान मैं
दसन दमक फैली हिये मोतीलाल होती
प्रिय सौ लड़कि प्रेम पगी बतरानी मैं ।
घनानंद कहता है कि अन्य कवि सजल सजेस्ट होकर कविता लिखते हैं पर उनकी कविता उनके भाव का सहज और छनन उच्च लैंड है उसकी रचना के पीछे ना अध्ययन है ना वस और ना कभी का सचित्र लेवाइन लिखी गई है भावों का अजस्त्र प्रवाह कविता बनकर फूट पड़ा है वह आंतरिक लेन का परिणाम है इसलिए उनकी कविता भाव नहीं है उसमें भावों का तीव्र वेग है प्रवाह है।
घनानंद अंतर्मुखी वृद्धि के कवि थे। अतः उनके काव्य में आंतरिक पीड़ा की ही व्यंजना है, हर्ष उल्लास के चरणों में भी वे अपने अंतर का उल्लास ही व्यक्त करते हैं, अतः सर्वत्र तीव्र भावावेग है। यही कारण है कि संयोग और वियोग दोनों के चित्रों में मार्मिक अनुभूतियों का वर्णन है। सहयोग के चित्रों में भी स्थूलता नहीं है, अतः उनकी उक्तियां निस्कलुष हैं, पंकलिता का लेसमात्र भी नहीं हैं।
मोर ते साझी लो कानन ओर निहारति बावरी....
.......... ..............तारनि सो इकतार न टारति।।
लौकिक प्रेम की व्यंजना
रीतिकाल के कवि भक्ति काल के कवियों से भेजना है जहां एक भक्ति काल के कवियों की दृष्टि पारलौकिक सत्ता पर केंद्रित थी व परलोक सुधारने के लिए भक्ति मार्ग पर चलें नाना प्रकार से अपने भक्त ह्रदय की भावनाएं प्रकट की वहां रीतिकाल के कवियों की दृष्टि एक थी वह संसार और संसार के सुखों का पूरी तरह उपयोग करना चाहते थे अतः इनके काव्य की मूल व्यंजना संवेदना प्रेम है रीतिबद्ध कवियों का प्रेम एंग्री है रीतिमुक्त कवियों का प्रेम निश्चल सरल सात्विक उत्सर्ग करने वाला घनानंद के काव्य की मूल संवेदना भी प्रेम है, पर उदात्त प्रेम है:
अति सुधो सनेह को मारग है
जहां नेकु स यानप बाक नहीं।।
इनके काव्य में ना आडंबर है ना कृत्रिमता और ना अनावश्यक अलंकरण यहां ना सखी की आवश्यकता है और ना धोती की प्रेमी ही दें कि सचिव कार्य सुनाई देती है घनानंद का प्रेम मीन और पतंगे का प्रेम से भी अधिक तीव्र है मीन और पतंगे तो प्राण त्याग कर कष्ट मुक्त हो जाते हैं पर घनानंद प्रेम की आग में जीवन भर चलते रहते हैं।
मैरिबो बिसराम गनौ वह तो बापूरो मीत तजयो तरसे।
इसलिए घनानंद को प्रेम की पीर का कवि उनके कविता को मै मकरंद भरे कहा जाता है उनकी दृष्टि में जो स्वयं को निछावर करता है, बहन का त्याग देता है, इसके मन में ना भय है और ना आशंका वही सच्चा प्रेमी है और वह और घनानंद स्वयं इस कसौटी पर खरे उतरते हैं ।
तहां साचे चलें ताजी आपनापो
झिझके कपटी जे निसांक नहीं।
वियोग वर्णन
रीतिकाल के रीतिबद्ध कवियों ने विरह वर्णन अपेक्षाकृत कम किया है उनकी वृद्धि उसमें रमी ही नहीं है जहां कहीं योगिनी की दशा के चित्र प्रस्तुत किए गए हैं वह या तो अलंकारों की योजना के कारण तीव्र प्रभाव उत्पन्न नहीं कर पाते या फिर वह आत्मक उठती हूं तथा नाथ जो प्रबल देने के कारण मजाक की हद तक पहुंच गए हैं उनमें इस अनुभूति है ही नहीं रीतिमुक्त कवियों ने प्रथम तो किसी दूसरे की विरह व्यथा का चित्रण आकर कर स्वयं अपनी वेदना के चित्र ओके रहे हैं और दूसरे उनकी यह व्यथा सहज और सरल भाषा में अभिव्यक्त हुई है घनानंद के काव्य की विशेषता है कि उनका मन सदा आसन विरह की आशंका के कारण उद्योग इन रहता है रहता है
सहयोग के क्षणों में अभी बिरहा उनका पीछा नहीं छोड़ता विशेषता यह है कि वह मर मनात परमात्मा तक वर्मा अंतक पीड़ा झेलते हुए भी प्रिय मिलन की आशा नहीं त्याग दे आंखें आंसू बहाते हुए भी खुली रहती है उन्हें आशा है कि यह किसी भी क्षण आ सकता है
प्रकृति के प्रति दृष्टिकोण
रीतिमुक्त कवियों के प्रकृति संबंधी दृष्टिकोण को देख सुखद आश्चर्य होता है वह प्रकृति को जड़ नहीं मानते उनके काव्य में प्रकृति का उद्यापन उद्दीपन रूप है पर साथ ही वह मानव को सुख दुख की संगिनी तथा विरही की विरह पीड़ा के प्रति संवेदनशील स्वयं व्यथित चित्र की गई है घनानंद प्रकृति को कालिदास की तरह संदेह वाहिका भी बनाते हैं मेघ से निवेदन करते हैं घनानंद जीवन दायक हो कुछ मारियो पी रही है परसो कब हूं या विश्वास सुजान के आगन अश्वनी हूं लेबर सॉन्ग लेबर सॉन्ग
भाषा शिल्प
घनानंद की काव्य भाषा भी ब्रजभाषा है उसकी निजी विशेषताएं हैं मुहावरों लोकोक्तियों का प्रयोग सहज जन प्रदीप शब्दावली शब्द चयन में विवेक नए शब्दों को घृणा शब्दों को नया अर्थ प्रदान करना विरोधाभास का जैसा कुशल प्रयोग घनानंद ने किया है वह संपूर्ण हिंदी काव्य में बेजोड़ है।
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