Hindijumla_main_add

निर्गुण ज्ञानमार्गी संत काव्य धारा की प्रमुख प्रवृत्तियां

निर्गुण ज्ञानमार्गी संत काव्य धारा की प्रमुख प्रवृत्तियां


संत साहित्य का अवलोकन करें तो हमें जान पाते हैं कि संत कबीर निर्गुण ब्रह्म की उपासना पर  बल देते थे ।  निर्गुण  अर्थात जिसकी कोई मूर्ति नहीं है , जो हमारे शरीर के भीतर एक प्रकाश पुंज , एक शक्ति की तरह विद्यमान है । जिससे मिलने में केवल हम माया जाल की बाधा को तोड़ना है । मायाजाल जो हमें संसार से मोह के रूप में बांधे हुए  है , इससे निकलकर ही हम उस परम शक्ति में समाहित हो सकते हैं और ऐसा केवल गुरु के ज्ञान द्वारा ही संभव है । इसी धारणा को संत कवि मानते थे और यही लोक  प्रवृत्ति आगे चलकर लोक धर्म के रूप में प्रचलित हुई । संत काव्य  धारा की प्रमुख प्रवृतियां निम्नलिखित हैं :-
     
         

 भक्ति निरूपण

भक्ति संत कवियों की शरणभूमि न होकर कर्मभूमि है । । सहज  आसक्ति ही ईश्वर की भक्ति है । यह मूर्तिपूजा तथा अवतारवाद  पर विश्वास नहीं रखते थे । केवल  निर्गुण ब्रह्मा की सत्ता को मानते थे । ईश्वर से प्रेम प्रकट करने के लिए वे मानते हैं कि इसकी अनुभूति हमें भीतर से होनी चाहिए और नाम स्मरण ही इसका एकमात्र उपाय है । अपने सभी मन में उठने वाले भाव दास , दीनता , मित्रता , कामुकता , वात्सल्य आदि भावों को हृदय से प्रभु को समर्पित करते हैं ।  वे अहम के त्याग को अति आवश्यक मानते हैं क्योंकि ईश्वर प्राप्ति से पूर्व अपने भीतर उपस्थित शत्रु - काम  , क्रोध मद , लोभ को जीतना पड़ता है तत्पश्चात ही हम परम शक्ति में एकात्म हो सकते हैं ।
       " निर्गुण राम जपहु रे भाई
          अविगत की गति  लेखि न जाई "

 सामाजिक चेतना

 भक्ति काव्य एक सामाजिक - सांस्कृतिक आंदोलन के रूप में सामने आता है  । क्योंकि अधिकतर सभी संत निम्न - जातियों से थे  जिन्हें हमेशा ठुकराया गया । यह संत कबीर धार्मिक आडंबरओं के विरोधी थे । यह कभी भी मूर्ति - पूजा , व्रत , तीर्थ में विश्वास नहीं रखते थे । समाज को सुख की नींद में सोया देखकर कबीर जैसे कवि अत्यंत पीड़ा का अनुभव करते हैं :-
             "सुखिया सब संसार है , खावे और सोवे।
               दुखिया दास कबीर है , जाग और रोवे ।।"

यह कवि जाति - प्रथा का विरोध करते हैं और मानते हैं कि प्रत्येक जीव के मन में ईश्वर का निवास है  । वह कण-कण में व्याप्त है उसके रूप को देखना पहचाना संभव नहीं है ।
              "जाती - पाती पूछे नहीं कोई
                हरि को भजे सो हरि का होई"

संत कवि समाज में चेतना जगाने का कार्य करते थे तथा  रूढ़ियों,  कुरीतियों का खंडन करने से भी नहीं चूकते थे । उस समय यह मान्यता प्रचलित थी कि जो काशी में देह त्यागता है उसे स्वर्ग मिलता है और जो मगहर मैं उसको नीच योनि प्राप्त होती है।  किंतु कबीर ने  लोकरूढि को तोड़ने के लिए सामने आए  , जिन्होंने अपना सारा जीवन काशी में बिताया ,  किंतु अंतिम समय में मगहर चले गए । इससे वे समाज को संदेश देना चाहते थे कि बिना कुछ जाने उसे मानना कदापि भी ठीक नहीं क्योंकि से समाज का  हार्स  होता है ।

 सद्गुरु की महत्ता

संत कवियों कवि अपने गुरुओं पर अनन्य विश्वास था । वह कहते हैं कि गुरु न होने पर व्यक्ति जीवन भर उद्देश्य  के लिए भटकता रहता है और अज्ञानता के साथ मृत्यु को प्राप्त हो जाता है । गुरु ही उसे सन्मार्ग दिखाने वाला है । भगवान के रूठ जाने पर साधक की रक्षा हो सकती है , पर गुरु के रूठ जाने पर पतन  होना निश्चित है ।  गुरु किसी भी जाति का हो इससे फर्क नहीं पड़ता । उसका ज्ञान  महत्वपूर्ण  है जिसे ग्रहण करने के लिए व्यक्ति को लालायित रहना चाहिए।
             "जाति न पूछो साधु की पूछ लीजिए ज्ञान
               मोल करो तलवार का पड़ा रहन दो म्यान"

 संत काव्य में राम

संत  काव्य में राम के बारे में बताया गया  कि वह अवतार न हो कर ब्रह्मा स्वरूप है । 'राम' नाम की समानता होने पर  स्वरूपगत अंतर का मुख्य कारण 'लीला' और 'अवतार' का अंतर है  । संत कवियों ने राम के रूप में अगम , अगोचर , अतींद्रिय , अविनाशी  राम को देखा जो जन्म मरण से परे है । कबीर ने राम का मर्म जानकर  यह लिखा :-
                 "दशरथ सुत तिहुं लोक बखाना
                  राम का मर्म कोउ नहीं जाना"

 रहस्यवाद

 रहस्यवाद का अर्थ संत कवि उस दिव्य अलौकिक आत्मा से अपना निश्चल संबंध जोड़ना समझते हैं  ।   इसके लिए उन्होंने तीन चरण बताएं हैं ।
1) आत्मा परमात्मा की ओर आकर्षित होती है ।
2)आत्मा परमात्मा से प्रेम करती है।
3)आत्मा परमात्मा   में अभिन्न संबंध स्थापित हो जाता है।
अद्वैतवाद रहस्यवाद का प्राण है , जो मानता है कि आत्मा और परमात्मा  एक ही है , जिनके मध्य माया का आवरण पड़ा हुआ है । इस माया रूपी ठग का नाश होते ही आत्मा परमात्मा से मिल जाएगी , क्योंकि ज्ञानोदय होते ही अद्वैतवादी  स्वरूप स्पष्ट हो जाता है। रहस्यवादियों का शरीर हमेशा अलौकिक आनंद में मग्न रहता है ।  सूफी कवियों ने ईश्वर की कल्पना स्त्री रूप में की है । वह इसी प्रेम रूप में उसे पाना चाहते हैं और कहते हैं:-
                 " गुरु प्रेम का अंक पढ़ाई दिया
                    अब पढ़ने को कुछ नहीं बाकी"

 प्रेम लक्षणा भक्ति

सूफीमत के कवि प्रेम को अधिक महत्व देते हैं । इससे ही संत काव्य में प्रेम लक्षणा भक्ति का जन्म दिखाई पड़ता है । साधक को अनादि तत्व की ऐसी लगन लग जाती है कि संसार की कोई स्मृति नहीं रहती । सूफी मत के कवि परमात्मा को स्त्री रूप में स्वीकार्य करते  हैं ।
                   "हरी मोर पीउ , मै हरि  की बहुरिया"

 अद्वैतवाद

संत कवियों में भी शंकराचार्य के अद्वैतवाद का प्रभाव पड़ा  । वे मानते हैं कि आत्मा और परमात्मा के बीच का आवरण यह माया ही है । इन परतों को हटा देने पर ही परमात्मा के साथ एकीकरण संभव है  ।

          "मन मैला तन ऊजरा, बगुला कपटी अंग
            पैसों से तो कौवा भला , तन , मन एक ही अंग"

इस प्रकार  हम निर्गुण  ज्ञान मार्गी संत काव्य धारा के द्वारा संत कवियों की    प्रमुख प्रवृत्तियों   को जान पाते हैं । जिसके द्वारा उन्होंने समाज में चेतना फैलाने का कार्य किया। समाज को इस रूप से जागृत किया कि वह अच्छे और बुरे में फर्क समझ सके ।  वह निम्न जातियों की चेतना को जागृत करते हुए , कहना चाहते हैं कि अपने अच्छे-बुरे को स्वयं सोचें किसी की बातों पर यूं ही विश्वास न कर लें इसके लिए कबीर  मगहर जाकर अपने प्राणों को त्याग  देते  हैं ; ताकि वह  रूढ़ीवादी परंपराओं का खंडन कर सके तथा समाज को एक चेतना का मार्ग सुझा सके । निर्गुण ज्ञान मार्ग के संतों ने समाज को यह बताया कि आत्मा को परमात्मा में मिलाना ही जीवन का महत्वपूर्ण उद्देश्य है इसके लिए मूर्ति पूजा , तीर्थ यात्रा,  व्रत आदि का कोई खास महत्व नहीं । प्रभु को प्रेम द्वारा प्राप्त किया जा सकता है।

Post a Comment

1 Comments